हरिहर काका और लेखक के बिच में गहरा रिश्ता था , लेखक हरिहर काका को बचपन से जानते थे I हरिहर काका लेकाखा को अपने बच्चे की तरह प्यार देते थे Iलेखकऔर हरिहर काका के बीच उम्र का बड़ा फासला है। फिर भी दोनों में मित्रता है। लेखक ने अपने बचपन से हरिहर काका के दुःख को देखा है। लेखक हरिहर काका के पड़ोस में ही रहते हैं और हरिहर काका लेखक को अपने बच्चे की तरह ही प्यार करते हैं।
लेखक का गाँव एक छोटा-सा क़स्बा है। जो आरा शहर से चालीस किलोमीटर की दूरी पर है। यह क़स्बा हसनबाजार बस स्टैंड के पास है। इस गाँव की कुल आबादी ढाई-तीन हजार है। गाँव में एक ठाकुरजी का मंदिर है। जिसे लोग ठाकुरबारी भी कहते हैं। ठाकुरबारी की स्थापना कब हुई, इसका किसी को विशेष ज्ञान नहीं है। इस संबंध में प्रचलित है कि जब गाँव बसा था, तो उस समय एक संत यहाँ झोपड़ी बनाकर रहने लगे थे। उस संत ने यहाँ ठाकुरजी की पूजा आरम्भ कर दी, फिर लोगों ने धर्म से प्रेरित होकर चंदा इकट्ठा करके ठाकुरजी का मंदिर बनवा दिया। गाँव के लोगों का मानना है कि यहाँ मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है। पहले हरिहर काका रोज ठाकुरबारी जाते थे, परंतु अब परिस्थितिवश यहाँ आना बंद कर दिया है।
हरिहर काका चार भाई हैं। सबकी शादी हो चुकी है। उनके बच्चे भी बड़े हैं। हरिहर काका ने दो शादियाँ की थी। परंतु उन्हें बच्चे नहीं हुए। उनकी दोनों पत्नियां भी जल्दी स्वर्ग सिधार गईं। हरिहर काका ने तीसरी शादी अपनी बढ़ती उम्र और धार्मिक संस्कारों के कारण नहीं की। वे अपने भाइयों के साथ रहने लगे। हरिहर काका के पास कुल साठ बीघे खेत हैं। प्रत्येक भाई के हिस्से पंद्रह बीघे खेत हैं। परिवार के लोग खेती-बाड़ी पर ही निर्भर हैं। हरिहर काका के भाइयों ने अपनी पत्नियों को काका की सेवा करने के लिए कहा। कुछ समय तक तो वें सेवा करती रहीं, लेकिन बाद में न कर सकीं। भाइयों ने अपनी पत्नियों को काका की सेवा करने के लिए इसलिए कहा ताकि हरिहर काका की पंद्रह बीघे जमीन उनको मिल जाए।
एक समय ऐसा आया जब हरिहर काका को पानी देने वाला भी कोई नहीं था और बचा हुआ भोजन उनकी थाली में परोस दिया जाता था। उस दिन उनकी सहनशक्ति समाप्त हो गई, जिस दिन हरिहर काका के भतीजे का मित्र घर आया। उस दिन घर में स्वादिष्ट पकवान बनाए गए। काका ने सोचा आज तो उन्हें कुछ अच्छा खाने को मिलेगा, लेकिन उनकी कल्पना के विपरीत उन्हें रूखा-सूखा भोजन परोसा गया। हरिहर काका आग बबूला हो गए और बहुओं को खरी-खोटी सुनाने लगे।ठाकुरीबारी के पुजारी उस समय मंदिर के कार्य के लिए दालान में उपस्थित थे। उन्होंने मंदिर पहुँच कर इस घटना की सारी सूचना महंत को दी और महंत ने इसे शुभ संकेत माना।
गाँव के लोग हरिहर काका के घर की तरफ निकल पड़े। महंत काका को समझाकर ठाकुरबारी ले आए। महंत ने संसार की निन्दा शुरू कर दी और दुनिया को स्वार्थी कहने लगे। ईश्वर की महिमा का गुणगान करने लगे। महंत ने हरिहर काका को समझाया कि अपनी जमीन ठाकुरबारी के नाम कर दें, इससे तुम्हें बैकुंठ की प्राप्ति होगी तथा लोग तुम्हें हमेशा याद करेंगे। हरिहर काका उनकी बातें ध्यान से सुनते रहे और दुविधा में पड़ गए। अब उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। महंत ने ठाकुरबारी में ही उनके रहने और खाने-पीने का इंतजाम करवा दिया था।जैसे ही इस घटना की सूचना उनके भाइयों को मिली वैसे ही उन्हें मनाने के लिए ठाकुरबारी पहुँच गए। पर वे उन्हें घर वापिस लाने में सफल न हो सके। अगले ही दिन उनके भाई फिर हरिहर काका के पास गए और उनके पांव पकड़कर रोने लगे। हरिहर काका का दिल पसीज गया और वह अपने भाइयों के साथ घर वापिस आ गए। अब हरिहर काका की खूब सेवा होने लगी, जिस वस्तु की उन्हें इच्छा होती, आवाज़ लगाते ही तुरंत मिल जाती। परन्तु ऐसा केवल कुछ समय तक ही चल पाया।